रात चाँद और मैं
तीनों
छुपते फिरते हैं
इक दूसरे से
और छुप-छुप कर
ताका भी करते हैं
इक दूसरे को
रोज़ का खेल है ये
चाँद तो फिर भी
बेमन से आता है कई बार
अधूरा-अधूरा सा
और कभी-कभी तो
आता ही नहीं
लेकिन रात
रात हमेशा आती है
बिना नागा किये
फिर
खेलना पड़ ही जाता है
रोज़ का खेल
और जब थक जाते हैं
खेलते-खेलते
तब हार कर
प्रयोग कर ही लेते हैं
अपने अपने ब्रह्मास्त्रों का
फिर रात दिखती है
मद्धम-मद्धम
मलिन होती हुई
सूर्य की लालिमा से
और चाँद दिखता है
धीरे-धीरे
दूर क्षितिज पर
धरा में समाते हुए
और मैं
मैं हर बार
तलाशने लगता हूँ
कि कैसे खेलना है
ये खेल अगली बार
कितना अच्छा होता अगर
मैं भी कतरा-कतरा
खंडित हो पाता
किसी की लालिमा से
मैं भी समा पाता
मद्धम-मद्धम
किसी धरा में
कितना आसान है ना
उन दोनों के लिए
छुपना दिन के उजालों में